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Dec 14, 2008

उदंती.com , दिसम्बर 2008

उदंती.com ,  वर्ष 1, अंक 5, दिसम्बर 2008
सरस्वती से श्रेष्ठ कोई वैद्य नहीं है और उसकी साधना से 
बढक़र कोई दवा नहीं है। - एक जापानी सूक्ति

अनकही/शिक्षा प्रणाली की जर्जर नींव
संस्कृति/ मंडई खुशियों का मेला- त्रिजुगी कौशिक
व्यक्तित्व/हम साथ साथ हैं'मिशेल' बराक ओबामा की जिंदगी का प्यार- इलेन क्लिफ्ट
कलाकार /चित्रकला-मनोभावों का संप्रेषण करते....
खोज/विज्ञान एक कीड़ा पेड़ की टहनी जैसा? -स्रोत
मुलाकात/साहित्यकार हिन्दी के दुर्गम संसार में 'उदय प्रकाश' -विनोद साव
मुद्दा/हमला आतंकवाद! चोला बदल रहा है -डॉ. महेश परिमल
पर्यावरण/परंपरा हमारे लोक देवता "वृक्ष" -डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
गजलें 1. सिलसिला 2. अफसाना- राजेश उत्साही
स्मरण/जन्म शताब्दी वर्ष दुर्गा भाभी- अंग्रेजी सरकार की..-आकांक्षा यादव
पुरातन/वास्तु शिल्प -हिमाचल की पहाडिय़ों में भी है एक एलोरा-प्रिया आनंद
विमर्श/समाचार पत्र जिम्मेदार मीडिया का गढ़ छत्तीसगढ़- जयराम दास
लघुकथाएं 1. और रजाई ओढ़ा दी 2. मैं कैसे पढूं ? - सुकेश साहनी
अभियान/मुझे भी आता है गुस्सा उफ... ये मौजा ही मौजा - डॉ. प्रतिमा चंद्राकर
इस अंक के रचनाकार
आपके पत्र/इन बाक्स
रंग बिरंगी दुनिया 1. सफेद दाढ़ी वालों.. 2. शुद्ध पेयजल चाहिए तो...3. मल्टी स्टोरी कब्रिस्तान !
किशोर कुमार के ...
स्वागत है/रचनाकारो से अनुरोध

शिक्षा प्रणाली की जर्जर नींव

शिक्षा प्रणाली की जर्जर नींव
-रत्ना वर्मा
प्राथमिक शिक्षा, जो शिक्षा प्रणाली की नींव होती है, के प्रति लगातार की जा रही उपेक्षा का परिणाम है, आज भारत की पहचान विश्व में निरक्षरों की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राष्ट्र के रुप में होती है।
यह दुखद स्थिति है कि 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने हेतु आवश्यकसंविधान संशोधन विधेयक पिछले कई वर्षों से संसद में लंबित है।
हमारे शरीर में जो महत्व रक्त का है वही महत्व समाज में शिक्षा का है। जो महत्व हमारे शरीर में हृदय का है वही महत्व समाज में प्राथमिक विद्यालयों का है। आज विश्व में जो सबसे अधिक विकसित और समृद्ध देश हैं उन सभी में बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने के समुचित प्रबंध वहां की सरकारों द्वारा किए गए हैं। जिसमें वहां प्रत्येक विद्यालय में बच्चों के शिक्षण के लिए भवन, शैक्षणिक उपकरण, विद्यार्थियों और शिक्षकों के लिए स्वच्छ पीने का पानी, शौचालय, पुस्तकालय खेल-कूद और व्यायाम के लिए विद्यालय प्रांगण के भीतर ही आवश्यक आकार के मैदान और साज समान आदि सभी उपलब्ध रहते हैं । इस प्रकार की शैक्षणिक व्यवस्था इंग्लैन्ड, फ्रांस, जर्मनी, अमरीका, रुस, चीन, जापान इत्यादि के सरकारों द्वारा दृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति से उपजी राष्र्ट्रीय नीति का क्रियान्वयन थी। इसका नतीजा है कि इन देशों की जनता में साक्षरता का मापदण्ड शत-प्रतिशत के करीब पहुंच गया और बीसवीं शताब्दी में इन देशों में इतनी द्रुतगति से समग्र प्रगति हुई कि विश्व अचंभित हो गया। शिक्षा को राष्ट्र्रीय प्रगति योजनाओं की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में एक बनाए रखने का ऐसा सुखद परिणाम तो होना ही था।
इसके विपरीत आइए हम स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के छ: दशकों से अधिक समय में अपने देश में शिक्षा के साथ, राजनेताओं द्वारा किए गए खिलवाड़ के दुष्परिणाम का जायजा लें। शिक्षा और विशेषतया प्राथमिक शिक्षा, जो शिक्षा प्रणाली की नींव होती है, के प्रति लगातार की जा रही उपेक्षा का परिणाम है, आज भारत की पहचान विश्व में निरक्षरों की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राष्ट्र के रुप में होती है।
शिक्षा के क्षेत्र में यह शर्मनाक राष्ट्रीय उपलब्धि परिणाम है प्राथमिक शिक्षा की दुर्गति का। देश के अधिकांश प्राथमिक विद्यालयों में विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में भवन ही नहीं हैं, जहां कहीं भवन हैं भी तो उनमें न तो खिडक़ी, दरवाजे हैं न ही बच्चों के लिए कुर्सी, टेबल, पीने का पानी, शौचालय और पुस्तकालय तो इन प्राथमिक विद्यालयों के बच्चों और शिक्षकों के लिए कल्पना से परे की चीजें हैं।
शिक्षा प्रणाली की बुनियाद के प्रति शासकों के इस उपेक्षापूर्ण व्यवहार का ही परिणाम है प्राथमिक विद्यालयों के अधिकांश शिक्षक कभी कभार ही विद्यालयों में मुंह दिखाते हैं। ऐसे में स्पष्ट ही है कि सर्वशिक्षा अभियान और बच्चों को दोपहर में भोजन इत्यादि देने की बात सिर्फ कागकाी आंकड़ों और भ्रष्टाचार का साधन बन गए हैं। तभी तो हमारा देश विश्व में निरक्षरों की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश के रुप में बदनाम है।
इस परिपेक्ष्य में अराजकता, नक्सलवाद, चोरी डकैती और भ्रष्टाचार दिन दूने रात चौगुने बढेंगें ही। निरक्षर न सिर्फ बेरोजगार होता है बल्कि किसी भी रोजगार के काबिल भी नहीं होता। निरक्षरों की यह विशाल आबादी सहायक हुई है जनतंत्र को भारत में एक नई परिभाषा देने में। जनतंत्र का अर्थ हमारे यहां सिर्फ चुनावी वोट तक सीमित हो गया है। जिसके अनुसार अपराधियों को विधायक और सांसद बनना ही है और ऐसा हो भी रहा है।

कुल जमा यह कि हमारी गड्ड- मड्ड शिक्षा नीति का नतीजा है कि हमारे यहां पूरा ध्यान विश्वविद्यालयों और उच्च तकनीकी शिक्षण संस्थानों की स्थापना पर दिया जाता है। यह तो कुछ वैसा ही है जैसे कि आसपास के क्षेत्र में गन्ना उत्पादन सुनिश्चित किये बिना ही शक्कर बनाने का विशाल कारखाना स्थापित कर देना।

राष्ट्र और समाज में किसी भी योजना को सफल होने के लिये दृढ़ इच्छा शक्ति अनिवार्य होती है। भारत में रंगीन टेलीविजन और टेलीफोन की कोने-कोने में उपलब्धता दृढ़ राजनैतिक शक्ति द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों का सुखद परिणाम हैं, परंतु जहां तक शिक्षा जैसी बुनियादी आवश्यकता की बात है इस इच्छा शक्ति का अभाव ही नजर आता है। जिसका प्रमाण है यह तथ्य कि 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने हेतु आवश्यक संविधान संशोधन विधेयक पिछले कई वर्षों से संसद में लंबित है। जबकि प्राथमिक विद्यालय ही प्रतिभा की वह नर्सरी है जिसमें से वह पौधा निकलता है जो आगे चल कर विवेकी और ईमानदार राजनेताओं, प्रसिद्ध शिक्षकों, वैज्ञानिकों, लेखकों और ओलम्पिक में स्वर्ण पदक विजेताओं के रुप में पल्लवित होती है। निरक्षरता के कलंक को धोये बिना चन्द्रयान की सफलता फीकी है।

Dec 13, 2008

खुशियों का मेला

मड़ई
खुशियों का मेला
- त्रिजुगी कौशिक


मेला शब्द में एक रोमांच है, उत्तेजना है। मेला मानो मिलन शब्द से बना है। मिलने का यह स्वरूप कुछ अलग है ... जैसे यहां आकर हर कोई खो जाना चाहता है। मेलों का मौसम वर्षा ऋतु के पश्चात फसल आगमन से प्रारंभ होता है। छत्तीसगढ़ का मेला कार्तिक पूर्णिमा महादेव घाट से प्रारंभ होकर फागुन मड़ई दंतेवाड़ा तक अनवरत चलता रहता है ...


मेला यानि खुशियों का मेला अर्थात चटख रंगों में सजे-धजे बच्चे, किशोर व युवक-युवतियों का झुंड। हंसती खिलखिलाती... किलकारियों से गुंजती आवाजों का मेला। जहां उल्लास है, उमंग है, लाल-पीला-हरा चटख रंग है ...। आकाश में झूलते-झूले, हिंडोले हैं। नाचते-कूदते भालू बंदर हैं, नाचा नौटंकी, जादू, रंग बिरंगी चूडिय़ां, सिन्दूर टिकली, फीता व बुन्दा की सजी-धजी दुकानें, गुब्बारे, खेल-खिलौने व फिरकनियां। उस पर जलेबी, मिठाई व बताशा और उखरा की दुकानें समझों यहीं भरा है ... खुशियों का मेला, जहां बचपन गुम जाता है।

यह है भारतीय संस्कृति का सांस्कृतिक सामाजिक विविधता भरी जीवनशैली का एक रूप। हमारे देश का लोकानुरंजक मौलिक संस्कृति का संतरंगा ग्राम्य स्वरूप प्रचलित व विख्यात है। इन मेलों के मूल में कोई न कोई अन्र्तकथा है, संवेदना है, व आदि लोक परंपरा है यही कारण हैं कि इनका धार्मिक सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक स्वरूप कभी मिटता नहीं।

हाट बाजार व मेले में काफी अंतर है। मेला शब्द में एक रोमांच है, उत्तेजना है। मेला मानो मिलन शब्द से बना है। मिलने का यह स्वरूप कुछ अलग है ... जैसे यहां आकर हर कोई खो जाना चाहता है। हमारी भारतीय संस्कृति में मेले मड़ई का स्थान सांस्कृतिक सामाजिक विविधता के साथ उल्लास के प्रसंग से जुड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय मेले के या तो धार्मिक कारण हैं या आर्थिक सुखहाली का पूर्वानुमान। कुछ भी हो पर ग्रामीण मेला का रूप सतरंगी होता है। मेलों का मौसम वर्षा ऋतु के पश्चात फसल आगमन से प्रारंभ होता है। छत्तीसगढ़ का मेला कार्तिक पूर्णिमा महादेव घाट से प्रारंभ होकर फागुन मड़ई दंतेवाड़ा तक अनवरत चलता रहता है ...

कर्णेश्वर मेला - रायपुर जिले का आदिवासी बहुल क्षेत्र सिहावा जहां महानदी का उद्गम है, जो शृंगी ऋषि के तपोभूमि के रूप में प्रसिद्ध है। वहां माघ पूर्णिमा पर कर्णेश्वर मेला का आयोजन होता है यह तीन दिनों तक रहता है।

राजिम मेला - महानदी के किनारे रायपुर जिले का दूसरा महत्वपूर्ण मेला राजिम है। राजीव लोचन मंदिर और कुलेश्वर महादेव के मंदिर क्षेत्र में फैला राजिम का मेला यहां का महत्वपूर्ण मेला है। राजिम का मेला माघ पूर्णिमा से लेकर महाशिवरात्रि तक रहता है राजिम के पास ही चम्पारण्य नामक महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मस्थली है वहां चम्पारण्य का मेला भरता है।

सिरपुर का मेला - राजिम मेले के साथ ही रायपुर जिले का सिरपुर में भी माघ पूर्णिमा से शिवरात्रि तक मेला भरता है। श्रीपुर के नाम से प्रसिद्ध यह स्थान शरभपुरीय व सोमवंशी राजाओं की राजधानी रही है। सिरपुर में प्रसिद्ध लक्ष्मण मंदिर है जो सोमवंशी राजा महाशिवगुप्त बालार्जुन का स्मरण दिलाता है। ईंट से बनी यह आठवीं शताब्दी की अनुपम कृति है जिसे महारानी ने बनवाया है। सिरपुर में गंधेश्वर मंदिर स्वास्तिक विहार, आनंद प्रभुकुटी विहार एवं बौद्धों के प्राचीन स्मारक हैं।

गिरौदपुरी मेला - कसडोल विकासखंड के ग्राम गिरौदपुरी में सतनाम पंथ गुरु संतघासीदास की जन्म स्थली है छत्तीसगढ़ के सामाजिक क्रांति के प्रणेता महान संत गुरु घासीदास ने 18 दिसम्बर 1750 में जन्म लिया था। यह स्थान सतनामियों की प्रसिद्ध तीर्थ स्थली है। यहां का मेला भव्यतम होता है। यह 18 दिसम्बर को भरता है।

खल्लारी मेला - रायपुर जिले के बागबाहरा विकासखंड के गांव खल्लारी में चैत पूर्णिमा पर मेला भरता है खल्वाटिका के नाम से चर्चित यहां एक ऊंची पहाड़ी पर खल्लारी माता का मंदिर है।

दामाखेड़ा का मेला - मेले की इस शृंखला में सिमगा विकासखंड का दामाखेड़ा का माघ मेला महत्वपूर्ण कड़ी है। दामाखेड़ा कबीरपंथियों की तीर्थभूमि है। माघ पूर्णिमा पर यहां सद्गुरु कबीर साहब धर्मदास वंशावली प्रतिनिधि सभा द्वारा मेले का आयोजन होता है। इस मेले में कबीरपंथी देशभर से आते हैं।

बस्तर के मेले मड़ई - बस्तर जिला का महापर्व बस्तर 'दशहराÓ और रथयात्रा पर 'गोंचाÓ दो बड़े मेले मड़ईयों में गिनी जा सकती है, पर इसे मेला की संज्ञा देना पर्याप्त नहीं है।
भद्रकाली का मेला- शिवरात्रि के दिन इंद्रावती गोदावरी के संगम पर भद्रकाली का मेला भरता है यहां भद्रकाली का एक छोटा सा मंदिर टीले पर स्थित है।

कहा जाता है काकतीय वंश के महाराजा प्रताप रूद्रदेव ने वारंगल में मुगलों से परास्त होकर राज्य विहीन होकर बस्तर प्रवेश किया था। तब उन्होंने भद्रकाली में यह मंदिर बनवाकर देवी दन्तेश्वरी की पूजा की थी। यहां उन्हें दिव्य तलवार देवी से वरदान स्वरूप मिला था जिसके बल पर उन्होंने बस्तर में अपना राज्य स्थापित किया था।

नारायणपुर मंडई - बस्तर जिले का सबसे आकर्षक मुरिया मड़ई माघ महीने के शुक्ल पक्ष में बुधवार को भरता है। अबूझमाड़ क्षेत्र से जुड़े होने के कारण मड़ई में भारी भीड़ जुटती है। मड़ई के दिन देवी मंदिर में पुजारी द्वारा पारंपरिक विधि से पूजा-पाठ किया जाता है। यहां कई सिरहा उपस्थित रहते हैं।

शाम होते ही देवी-देवताओं के छत्र, विशाल सिरहा गुनिया का समूह आंगादेव सहित साप्ताहिक बाजार स्थल पर इकट्ठे होते हैं। मंडई का आकर्षण है सामूहिक नृत्य चेलिक मोटियारियों का झुंड। युवक कमरे में घंटी बांधें घंटों नाचते गाते हैं।

छोटपाल मड़ई - यदि ठेठ माडिय़ा का आनंद उठाना हो तो गीदम के पास का छोटपाल मंडई का आनंद लीजिए। सैकड़ों की संख्या में यहां माडिया आदिवासियों की जमघट होती है। इसी तरह बस्तर व करपावण्ड की मड़ई दीवाली के बाद होती है।

दन्तेवाड़ा की फागुन मड़ई - दन्तेवाड़ा की फागुन मड़ई होली के समय की मड़ई है। होली के एक सप्ताह पूर्व मड़ई नृत्योत्सव प्रारंभ हो जाता है। प्रतिदिन दंतेश्वरी मंदिर से डोली व छत्र निकलता है तथा मेडक़ा डोंनका नामक स्थान पर ग्रामवासियों द्वारा गौरमार आखेट नृत्य किया जाता है। अंतिम दिवस होली के दिन दन्तेवाड़ा में थाने के सामने विशाल मेला भरता है।

धूमधाम से मां दंतेश्वरी की डोली व छत्र का जुलूस निकलता है। रंग गुलाल चढ़ाने के बाद होली खेलना प्रारंभ किया जाता है। इस तरह बस्तर में प्रति सप्ताह कहीं न कहीं फागुन मड़ई के पूर्व मड़ईयां भरती है। जहां आदिवासी सम्मिलित होकर अपने-अपने क्षेत्र के देवी-देवता के छत्र के साथ उपस्थित होकर सारी रात नाच गाकर अपना उल्लास प्रकट करते हैं। मड़ई इनके लिए वर्षिकोत्सव की तरह होता है। यहां आकर वे अपनी कला को उन्मुक्त होकर प्रकट करते हैं।

सरगुजा जिले के मेले- सरगुजा जिले में अनेक स्थानों में मेले भरते हैं। जिनमें प्रमुख मेलें हैं। कुसमी, कुदरगढ़, सीतापुर, शंकरगढ़, डीपाडीह, दुर्गापुर, रामगढ़ और देवगढ़। सरगुजा के रामगढ़, कुदुरगढ़ व देवगढ़ के मेले में मूलत: धार्मिक भावना निहित है।

कुसमी मेला - प्राचीन कालीन है इसे जात्रा मेला भी कहते हैं। कुसमी मेला जिस दिन भरता है। युवक-युवतियां नाच गान करते हैं। ये गांव से नाचते हुए मेले के चबूतरे तक पहुंचते हैं ये चबूतरे के चारों ओर घूम घूमकर नाचते हैं। इन दिन चना, मुर्रा मांगकर खाने का रिवाज हैं।

कुदुरगढ़ मेला - यह चैत्र नवरात्रि में भरता है। यहां एक देवी का मंदिर है वहां एक सुराख है। इस सुराख की गहराई अनंत है। यहां बकरे की बलि दी जाती है खून उसी सूराख में समा जाता है। यहां श्रद्धालु नारियल चुनरी भी चढ़ाते हैं। कुदरगढ़ अंबिकापुर से 25 किमी की दूरी पर है। इस मेले को घिर्रा भी कहते हैं।

घिर्रा - घिर्रा यानि मेले का पहला दिन युवकों का उत्सव का होता है और दूसरा दिन बाजार का होता है। सरगुजिहा भाषा में घिर्रा का अर्थ मदमस्त होकर दौडऩा कूदना होता है। सरगुजा जिले में फसल की कटाई के बाद पूस माह में गांव-गांव में घिर्रा का आयोजन होता है।

बिलासपुर जिले के मेले- बिलासपुर जिले के प्रमुख मेलों में शिवरीनारायण रतनपुर, मल्हार, पीथमपुर है। बिलासपुर में माघ पूर्णिमा में बिल्हा में रतनपुर में, सेतगंगा (मुंगेली), बेलयान (तखतपुर) सागर व शिवरीनारायण में मेला भरता है। मकर संक्रांति में लखनघाट (मरवाही), मदकू (पथरिया), सेमरताल (लोरमी), पीथमपुर (जांजगीर) मेला का आयोजन होता है। महाशिवरात्रि में मल्हार (मस्तूरी) चारीडीह बिलासपुर में होता है। इसके साथ ही किरारी (मस्तूरी), पथरगढ़ी (पथरिया) में तथा कटघोरा में जनवरी में मेला भरता है।

राजनांदगांव के मेले- राजनांदगांव में डोंगरगढ़ का मेला क्वार चैत्र में नवरात्रि मेले का नाम से आयोजित होता है। जहां मां बम्लेश्वरी की मूर्ति स्थापित है।

भोरमदेव का मेला- भोरमदेव (कवर्धा) का मेला रामनवमी के अवसर पर होता है। कवर्धा तहसील मुख्यालय से 16 किमी पर स्थित ऐतिहासिक शिवमंदिर है जहां यह मेला भरता है। यह तीन दिवसीय मेला है। यहां का मंदिर 4 सौ वर्ष पूर्व नाववंशी राजा द्वारा निर्मित कराया गया है। जो खजुराहो के मंदिर के समान है। ऐसी मान्यता है कि यहां सन्तानहीन व्यक्ति की मनोकामना पूर्ण होती है।

मोहरा मेला- मोहरा राजनांदगांव नगरपालिका सीमा पर नदी किनारे स्थित गांव है जहां शिवजी मंदिर है यहां कार्तिक पूर्णिमा पर मेला भरता है।

दशरंगपुर मेला- दशरंगपुर तहसील मुख्यालय कवर्धा से लगभग 15 किमी पर स्थित एक गांव है यहां शिवमंदिर है। यहां शिवरात्रि पर मेला भरता है।

दुर्ग जिले के मेले मड़ई- दुर्ग जिले में शिवनाथ नदी के किनारे बसा दुर्ग से 12 कि.मी. स्थित ग्राम चंगोरी में शिवरात्रि पर मेला भरता है। यहां शिव का मंदिर है। बेरला विकासखंड में जहां-जहां शिवमंदिर हैं वहां भी मेला भरता है। साजा विकास खंड में अकलवारा में दो दिवसीय व सहलपुर में दो दिन का मेला भरता है। माघी पूर्णिमा में साजा क्षेत्र के दही-मही में मेला भरता है। गुंडरदेही विकासखंड के ग्राम चौरेले में भी माघी पूर्णिमा को मेला भरता है।

रायगढ़ में मेला - रायगढ़ जिले में श्री कृष्ण के जन्म पर रायगढ़ में जन्माष्टमी में मेला भरता है। यह मेला रक्षाबंधन से जन्माष्टमी तक लगभग 10 दिनों का होता है। यह गौरीशंकर मंदिर के निकट भरता है।
शिवरात्रि मेला - यह मेला धर्मजयगढ़ विकासखंड के ग्राम कापू में भरता है। यह मेला 'किलकिला मेलाÓ नाम से प्रसिद्ध है। लोग माण्ड नदी में नहाकर - शिवमंदिर में जल चढ़ाते हैं। यह सात दिनों तक रहता है।

दशहरा मेला - दशहरा मेला मुख्यत: रायगढ़ खरसिया सारंगढ़, लैलूंगा व जशपुर में भरता है। यह एक दिन का होता है।
पोरथमेला - यह मेला सारंगढ़ तहसील के ग्राम पोरथ में मकर संक्रांति पर भरता है। यह महानदी के किनारे भरता है।
इस तरह मेले मड़ई छत्तीसगढ़ की संस्कृति का एक अंग है। जो इनके लिए मनोरंजन का साधन तो है ही साथ ही एक ऐसा मिलन स्थल है जहां लोग अपने संगी- साथी और नाते -रिश्तेदोरों से मिलते हैं और सुख- दुख बांटते हैं।
छाया: शंकर सिंह नागवंशी
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"मिशेल" बराक ओबामा की जिंदगी का प्यार

"मिशेल" बराक ओबामा की जिंदगी का प्यार
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मिशेल न केवल अपने पति के सुख-दुख में उनका साथ पूरी तरह निभाती हैं, बल्कि कार्यरत होने के बावजूद बच्चों की जरूरतों का पूरा ख्याल रखती हैं। पेशे से वह वकील हैं, लिहाजा उनके पास तर्को की कोई कमी नहीं है। वह पूरी तरह हाजिर जवाब हैं।

आखिर बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बन ही गए, लेकिन असी जीत मिशेल  के साथ-साथ पूरे अमेरिका की हुई है। पहे जहां महिलाएं बैक फुट पर रहकर या परदे के पीछे से अपने पार्टनर की मदद करती थी मिशेल ने फ्रंट फुट पर आकर यह काम बड़ी खूबसूरती से किया। मजेदार बात यह है कि बराक के कैंपेन में जोशीले अंदाज में भाग लेने के    लिए उन्होंने एक मीठी सी शर्त रखी थी कि अगर बराक सिगरेट पीना छोड़ देगे तो वह न सिर्फ उनके कैंपेन में ही भाग लेगी, बल्कि उन्हें राष्ट्रपति बनवाकर ही दम लेंगी। वैसे, मिशेल ओबामा को उनके अजीज तरह-तरह के नामों से जानते हैं। ग्लैमर वाइफ, मम इन चीफ, नेक्सट जैकी कैनडी जैसे नाम मिशे के शुभचिंतकों ने ही उन्हें दिए हंै। वह न केव अपने पति के सुख-दुख में उनका साथ पूरी तरह निभाती हैं, बल्कि कार्यरत होने के बावजूद बच्चों की जरूरतों का पूरा ख्या रखती हैं। पेशे से वह वकील हैं, लिहाजा उनके पास तर्को की कोई कमी नहीं है। वह पूरी तरह हाजिर जवाब हैं। उनकी इसी खासियत ने उन्हें प्रभावशाली तरीके से अपनी पति का चुनाव प्रचार संभाने में मदद की। मिशे की मेहनत तब रंग लाई, जब 4 नवंबर को ओबामा ने अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में वाइट हाउस पर दस्तक दी।

बराक मिशेल  की तारीफ करते नहीं थकते। वह कहते हैं, 'मिशेल मेरे परिवार की वह कड़ी हैं, जिससे सभी परिवार के सदस्य भावनात्मक रूप से जुड़े हैं। वह मेरी जिंदगी का प्यार है।Ó मिशेल  फायर ब्रैंड लेडी होने के साथ-साथ स्टाइ आइकन भी है। उन्होंने ओबामा के राष्ट्रपति बनने के दिन मशहूर डिजाइनर नारकिसो रोड्रिग्स की डिजाइन की हुई ड्रेस पहनी थी।

मिशे की परवरिश दक्षिणी शिकागो में हुई। उनके पिता वॉटर पंट में कर्मचारी थे और उनकी मां एक स्कू में सेक्रेटरी थीं। उन्होंने प्रिंसटन यूनिवर्सिटी और हार्वर्ड लॉ स्कूल से ग्रेजुएशन किया।

फस्र्ट डेट पर बराक और मिशे स्पाइक ली की फिल्म 'डू द राइट थिंग देखने गए थेÓ। इसके बाद उन्होंने अक्टूबर 1992 में शादी कर ली। उनकी दो बेटियां हैं, मालिया और शाशा।

मिशे छात्रों की पॉलिटक्स में काफी चुस्त थीं। खासतौर पर नस्भेद को लेकर उनके विचार काफी क्रांतिकारी हैं। वह अपने दि में कोई बात छिपा कर नहीं रखती। जो सच्चाई होती है, वह सबके सामने बता देती हैं। उनकी बातों में मजाक और व्यंग्य की तल्खी भी महसूस की जा सकती है। कुछ लोग उन्हें 'एंग्री यंग 'लेडी' तक कहते हैं। जब बराक को पही बार इनिलोस से सीनेटर चुना गया, तो उनका कहना था, 'मुझे पता है कि बराक एक न एक दिन कुछ ऐसा जरूर करेंगे, जिससे सारे देश की निगाहें उन पर टिक जाएंगी।'

अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ओबामा के रणनीतिकार डेविड एक्सरॉड कहते हैं, 'मिशे मिनसार और ईमानदार हैं। जो उनके दि में होता हैं, वही जबान पर होता है। उनको इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि उनकी बातों का दूसरा व्यक्ति पॉलिटक एंगल से क्या मतलब निकोलगा।'
अपने बोने के आक्रामक अंदाज से वह कई बार मुश्कि में फंस चुकी हैं। हा ही में ओबामा की चुनावी सभा में उनके मुंह से निक गया था, 'आज जिंदगी में पही बार मुझे अपने देश पर गर्व हो रहा है।' इस पर आलोचकों ने तुरंत उनकी देशभक्ति पर सवा उठा डों। लेकिन उनका परिवार दोस्त, रिश्तेदार या परिचित, जो भी उन्हें करीब से जानता है, उनका कहना है, 'मिशे सेल्फ मेड वुमन है और काफी बहादुर हैं।Ó'


पिछे सा 'ग्लैमर' मैंगजीन की लखिका और फिल्म निर्माता स्पाइक ली की पत्नी टॉन्या लुईस ली ने कहा था, 'मिशेल  को 1 बार देखने, के बाद मैं काफी डर गई थी। पर जब उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने न केव गर्मजोशी से हाथ मिलाया, बल्कि मियिन डॉर की मुस्कराहट भी मेरी ओर फें की। इतना हीं नहीं, उन्होंने मुझे गले  से लगाया मुझे लगा कि मैं उन्हें बरसों से जानती हूं।Ó एक दूसरे इंटरव्यू में मिशेल  ने कहा था, 'जीवन में हर समय फूलों की सेज नहीं मिलती। कभी-कभी कांटों के बिस्तर पर भी सोना पड़ता है। ईश्वर की कृपा से, अब तक जिंदगी में वह मुश्कि दौर नहीं आया। रोज सुबह उठकर मैं सिर्फ यही सोचती थी कि किस तरह यह चमत्कार ; ओबामा का राष्ट्रपति बनना मुमकिन होगा।Ó

लेकिन गता है कि वह सब मिशे की जिंदगी की कशमकश ही थी। राष्ट्रपति पद के लिए ओबामा की उम्मीदवारी का फैसा होते ही मिशे ने खुद को पूरी तरह चुनाव प्रचार अभियान में झोंक दिया। अब महत्वपूर्ण युद्घ तो ओबामा जीत ही चुके हैं। अब उन्हें राष्ट्रपति पद की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाना होगा, लेकिन मिशे साथ हों, तो क्या चिंता। 20 जनवरी 2009 को मिशेल  अमेरिका की फस्र्ट लेडी बनेंगी। इसमें कोई शक नहीं कि अमेरिका के ऐतिहासिक चुनाव प्रचार की तरह मिशेल  प्रशासन में ओबामा की योग्य साहकार बनेंगी, भे ही अनौपचारिक रुप से ही सही!
(विमेन्स फीचर सर्विस)

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मनोभावों का संप्रेषण करते मृत्युंजय के चित्र

मनोभावों का संप्रेषण करते मृत्युंजय के चित्र
देश भर की पत्र पत्रिकाओं और अखबारों में मृत्युंजय मिश्रा का नाम लेख और कहानियों के साथ रेखाचित्र के रू प में बार-बार दिखाई पड़ता है। यह ऐसे ही दिखाई पड़ता है जैसे धरती पर चलते-फिरते लोगों के साथ पेड़, पक्षी, सूरज, बादल, पानी और घर द्वार। दैनिक जीवन के इस्तेमाल की वस्तुएं और औरत।

चित्रों में लोग चलते-फिरते हलचल करते नजर आते हैं। ये लोग कागज की धरती पर अनगढ़ तरीके से उतरते हैं जैसे मिट्टी में खेलते हुए कोई मिट्टी कुरेद कर आकार बनाता है। इसमें आसपास के दृश्य होते हैं।

मृत्युंजय के चित्रों में मनोभावों का संप्रेषण प्रमुख होता है। रूपभेद, प्रमाण, भाव, लावण्य योजना, लय आदि। मृत्युंजय के चित्र सहज दृश्य को उपस्थित करते हैं। रूपकारों की बनावट के विस्तार में जाने की जरूरत महसूस नहीं करते बल्कि अर्थवत्ता की सूचना देने की लिए प्रतीकों का प्रयोग करते हैं।

विस्तृत पृथ्वी में जीवन संदर्भ जिस तेजी से बदलते हैं उसी तेजी से मृत्युंजय चित्र रेखा बनाते हैं। मृत्युंजय उत्तेजना से भरे ऊर्जावान कलाकार हैं यह उनके रेखाचित्रों की संख्या देखकर अनुभव होता है। ऐसा लगता है चलती रेलगाड़ी से, खिडक़ी से तेजी से बदलते दृश्यों को देखा जा रहा है। ये काम रूक- पलट कर देखने की भी मांग करते हंै। ये रुकना देखना सृजनात्मकता को नए सिरे से रचने के आयाम खोल सकता है।
उनकी अंतरिक्ष चित्र शृंखला अन्य चित्रों से बिल्कुल अलग है। इन चित्रों में बेचैनी के बावजूद स्थिरता, रंगों में गहराई एवं गंभीरता है। दूर आसमान में क्या-कुछ हलचल हो रही होगी, इन कल्पनाओं की फैन्टेसी, चित्रों में मुखर हैं। इन चित्रों में आकृतियों नहीं है, पहचान में आने लायक वस्तुरूप नहीं हैं, लेकिन यह रुपांकन किसी खोज, तलाश और उस निर्जन स्थान के सम्मोहन का इशारा करता है जो कहता है चलकर देखें।
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जन्म - 12.01.1974
शिक्षा - बी.कॉम, एम.ए. (हिन्दी साहित्य), एम.ए.( अंग्रेजी साहित्य), एमजेएमसी, पीएचडी अध्ययनरत, जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट, मुम्बई से इंटरमिडिएट एवं इलेक्ट्रानिक्स में डिप्लोमा।
कार्य - छत्तीसगढ़ संवाद में 7 साल से कॉपीराइटर के पद पर कार्यरत।
Website-www.Mrityunjayarts.com, Video C.D.-Big Frame Small paintings
पता- रामसागर पारा, धमतरी (छ.ग.) 493773
फोन- 07722-235353, मो. 9827474263, 9826119253, 9329737848
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उदंती.com के प्रथम अंक से ही किसी एक चित्रकार या कलाकार को प्रस्तुत करने की शृंखला में इस बार हमने मृत्यंजय के चित्रों को विभिन्न पन्नों पर प्रकाशित किया है।
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एक कीड़ा पेड़ की टहनी जैसा?

एक कीड़ा पेड़ की टहनी जैसा?
यह कीड़ा मलेशिया के बोर्नियो द्वीप के जंगलों में से खोजा गया है। कीट का नाम सुनते ही तितलियों, कॉकरोच वगैरह की याद आती है। मगर जो नया कीट मिला है वह पूरे 56.7 सेमी लंबा है। यानी आधा मीटर से भी ज़्यादा। यह लंबाई तब नापी गई है जब उसकी टांगों को एक सीध में रखा गया। टांगों को छोडक़र बात करें, तो भी यह 35.7 सेमी लंबा है।

इसे सबसे पहले खोजा था डाटुक चान ने। उनके ही नाम पर इसका नामकरण फोबेटिकस चानी किया गया है। वैसे साधारण भाषा में इसे चान मेगास्टिक कहते हैं। इस प्रजाति का विस्तृत वर्णन तैयार करने व नामकरण का काम ब्रिटिश वैज्ञानिक फिलिप ब्रौग ने किया। यह उन कीटों में से है जो बिलकुल टहनी जैसे दिखते हैं। यदि आपको ऐसा कीट दिखेगा तो काफी संभावना है कि आप इसे कोई तिनका या टहनी मानकर आगे बढ़ जाएंगे। इससे पहले जो सबसे लंबा कीट ज्ञात था वह भी एक टहनी कीट ही था- फोबेटिकस सिरेटाइपस। उसकी लंबाई चान मेगास्टिक की अपेक्षा 1 सेमी से भी ज़्यादा कम थी और यदि सिर्फ शरीर की लंबाई की बात करें तो चान मेगास्टिक पिछले रिकॉर्डधारी फोबेटिकस किर्बाई से करीब 3 सेमी लंबा है।

फोबेटिकस कीटों की करीब 300 प्रजातियां पाई जाती हैं। रोचक बात यह है कि पहले के रिकॉर्डधारी कीट तो हम 100 वर्षों से जानते हैं मगर यह वाला अक्टूबर 2008 में जाकर ही हाथ लगा है। वैसे अभी भी हमें इसकी जीवन चर्या के बारे में कुछ नहीं मालूम। ऐसे कीट साधारणतया बरसाती जंगल में वृक्षों की छाया में पाए जाते हैं। अब इसके तीन प्रादर्श उपलब्ध हैं और तीनों संग्रहालय में रखे हैं। साइज़ के अलावा इस कीट के अंडे भी कम विचित्र नहीं हैं। आम तौर पर हम सुनते आए हैं कि बीजों में ऐसी संरचनाएं पाई जाती हैं, जो उनको दूर- दूर तक बिखेरने में सहायक होती हैं।

मगर इस मेगास्टिक के अंडों में दोनों तरफ पंखनुमा संरचनाएं होती हैं, जो इसे हवा में उड़ाकर दूर-दूर तक पहुंचने में सहायता करती हैं। (स्रोत)

हिन्दी के दुर्गम संसार में उदय प्रकाश

हिन्दी के दुर्गम संसार में उदय प्रकाश
- विनोद साव


हिन्दी के प्रख्यात लेखक और कवि उदय प्रकाश जी का नाम हिंदी साहित्य में नया नहीं है। उनकी कहानी पालगोमरा का स्कूटर, वॉरेन हेस्टिंग्ज का सांड़ 'तिरिछ' और 'पीली छतरी वाली लडक़ी ' जैसी लंबी कहानियां बहुत ज्यादा पढ़ी और सराही गईं हैं। शब्दों के अनूठे शिल्प में बुनी कविताओं और उससे भी ज्यादा अनूठे गद्य शिल्प के लिए पहचाने, जाने वाले उदय प्रकाश से पिछले दिनों व्यंग्यकार विनोद साव ने दिल्ली के उनके निवास पर एक औपचारिक मुलाकात की। प्रस्तुत है उसी मुलाकात के कुछ अंश-

जब हम किसी से दूसरी बार मि रहे होते हैं तो उनकी पही मुलाकात की आवाजें गूंज रही होती हं। पिछे कुछ दिनों से ऐसा ही था। उन्हीं में से एक आवाज थी 'आनंद विहार आ जाइए वहां से बस दस मिनट में जज कॉलानी पहुंच जाएंगे।'

वैसा ही हुआ था और मैं जज कॉलनी के सामने दूसरे क्रम की ईमारत के सामने खड़ा था। नीचे किशोर उम्र के एक डक़े को पूछा था 'उदय प्रकाश!'

'सबसे ऊपर तीसरी मंजि पर। उनका मकान तो है पर वे रहते नहीं हैं। ऊपर अन्धेरा है और जाला फैला हुआ होगा उनके $जीने पर।'

उसने सिर ऊपर कर ईशारा किया था।

'अभी कुछ देर पहे तो उनसे मोबाइ पर बात हुई है।'

'देख लीजिए।'

तीसरी मंजि पर लोहे का एक गेट था जिसमें भीतर से ताला गा हुआ था। ऊपर से आवाजें आ रही थीं बतियाने की। मैंने लोहे के गेट को हिलाया था, थोड़ी देर में चाबी लेकर मैडम उतरीं थीं, उन्होंने नाम पूछा था, फिर गेट खो दिया गया था।

'यह मेट्रो सीटी का अपना तरीका है सुरक्षागत कारणों से।' उदय प्रकाश ने स्पष्ट किया था। ड्राइंग हॉ मुझे अच्छा गा पर उन्होंने संकोच बरता 'हम लोग भी क ही मध्यप्रदेश से लौटे हं। घर अभी व्यवस्थित हो नहीं पाया है।'

एक गृहिणी की सदाशयता से मैडम ने भी संकोच व्यक्त किया था। वे पानी लेने भीतर घुसीं। मैंने आहिस्ते से पूछा था 'ये भाभी .. पीला छतरी वाली डक़ी हैं क्या? Ó

'नहीं! उसमें कुछ सच्चाई है और थोड़ी कल्पना ' वे थोड़ा मुस्कराये थे।

'आपने दिल्ली की भीड़, शोर और प्रदूषण सबको कम कर यिला है गाजियाबाद में मकान बनाके' मैंने सामने बाल्कनी से शहर को झांकते हुए कहा था।

'हां .. उद्देश्य तो यही था। पर देखें यहां कब तक बचा जा सकता है इन सबसे।' उन्होंने दूर शॉपिंग मॉ की ओर इशारा कर कहा था कि ' जब यहां आया था तो बस चार ही मॉल थे अब उन्नीस हो गए हैं।'
घनघोर कांक्रीट होते शहर पर उनकी चिन्ता थी। यह दिल्ली और गाजियाबाद के सिवान पर बसा इलाका था। ठीक उनके गांव सीतापुर की तरह जो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के सिवान पर बसा है ।

यह पन्द्रह दिनों के भीतर ही उदय प्रकाश से दूसरी मुलाकात थी। वे कुछ दिनों पहे दुर्ग आए थे, अपने परिवार के साथ, तब दुर्ग के डेन्ट कॉलेज में अपनी दो भांजियों का प्रवेश उन्होंने करवाया था और उनके एक इन्डक्शन प्रोग्राम में सम्बोधित किया था। साथ में कनक तिवारी थे।

शाम को भिाई में अशोक सिंघई के निवास में उनसे लेखक बिरादरी से एक भेंटवार्ता थी। जिसमें उनकी कहानियों पर कई प्रश्न लोगों ने पूछे थे, 'लोगों ने क्या.. आपने ही तो सब पूछे थे। वे बो पड़ते हैं।'

नेहरु के त्रिमूर्ति भवन से बातें उन्होंने शुरु की थी, तब मैंने टोका था कि 'आप कैसे नेहरु की बात कर रहे हैं? नेहरु के भक्तों की पीढ़ी को तो थोड़ा और वरिष्ठ होना चाहिए।'

'आप ठीक कहते हैं, पर मुझमें नेहरु का प्रभाव है।' मैं स्कूलीय जीवन में भी उनके चित्र बनाया करता था।'
'नेहरु बड़े फोटोजनिक तो हैं' मैंने कहा 'एक समय तो नेहरु और लोहिया के समर्थक बहुत हुआ करते थे। वे इन दोनों महापुरुषों को तमगे की तरह लेकर चा करते थे, कि हम नेहरुवादी हैं या लोहियावादी हैं।' मैंने बात को थोड़ा और विस्तार दिया।

'नेहरु मुझे अपने लोकतांत्रिक दृष्टि के कारण बहुत अच्छे गे। आज जो साम्प्रादायिक दंगे हो रहे हैं और अल्पसंख्यकों को शक की निगाह से देखा जा रहा है। खासकर दिल्ली में तो एक कौम का जीना हराम हो रहा है।

हर बम काण्ड के बाद पूरी कौम को शक से देखा जा रहा है। यह स्थिति सारे देश में हो रही है। ऐसे में हमें नेहरु जैसे व्यापक सोच वालों की जरुरत है।'

हमारी बातचीत बिखरी हुई थी लेकिन खुलेपन के साथ थी। क्योंकि यह कोई प्रायोजित और आयोजित बैठक तो थी नहीं। मित्रवत बातें हो रही थीं। कुछ चाय और नमकीन के साथ। बीच-बीच में वे अपनी तम्बाकू जैसी कोई चीज एक छोटी थैली से निकाकर मुंह में दबा लेते थे। मैं सिगरेट पीने के एलि उनके टैरेस की ओर निकना चाहता था वे बपूर्वक बो पड़े थे 'बाहर क्यों? यही पीजिए।'

'साहित्य का क्या होगा?' पूछने पर कहते हैं 'साहित्य तो रहेगा। यह जरुर है कि आज प्रिन्ट मीडिया की सुविधा के कारण जो अनावश्यक साहित्य भूंसे के ढेर की तरह आ गया है। वह कम हो जायगा और फिर से अच्छे साहित्य और अच्छी पत्रिकाएं पूर्ववत कम हो जाएंगी।'

'पीली छतरी वाली लडक़ी' आपकी एक सौ बीस पृष्ठों की कहानी है पर आपने इसे उपन्यास नहीं माना है, कहा है कि एक म्बी कहानी है?

'देखिए उपन्यास में काफी फैलाव होता है और उसमें कुछ शिथिता होती है। लेकिन 'पीली छतरी वाली लडक़ी' में पूरी तरह कसावट है एक कहानी की तरह ही। इसे खिने की मेरी कोई योजना नहीं थी, यह राजेन्द्र यादव ने दबावपूर्वक खिवाई थी।'

'मोहनदास कहानी में आपने छत्तीसगढ़ी भाषा के संवाद खूब खिलें है। हम लोगों को जानकर यह आश्चर्य हुआ कि इस भाषा की पृष्ठभूमि आपने कहां से पायी। क्योंकि आप मध्यप्रदेश के हैं और शायद छत्तीसगढ़ी आपकी मातृभाषा

नहीं है।Ó

वे कहते हैं कि 'मैंने बताया न कि हमारा गांव मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के सिवान पर है। पहे तो दोनों राज्य एक थे और हम बिलासपुर-शहडोल के आसपास रहने वो लोग सब छत्तीसगढ़ी बोला करते थे। हमारे गांव परिवार में छत्तीसगढ़ी बोली जाती है। अब तो राज्य विभाजन के बाद मध्यप्रदेश वो हमें छत्तीसगढ़ का कहते हैं और छत्तीसगढ़ वो मध्यप्रदेश का, और इसएि मैं दोनों से वंचित हो जाता हूं न मध्यप्रदेश का न छत्तीसगढ़ का।Ó

'आप क्यों। आप तो आगे जा रहे हैं, ये दोनों प्रदेश आप से वंचित हो रहे हैं। चाहें तो दोनों श्रेय ले सकते हैं।Ó आपने मोहनदास कहानी में मुक्तिबोध, शमशेर और परसाई नाम को कहानी के चरित्र के रुप में इस्तेमा किया है? '

हां.. ये तीनों अपने समय के महत्वपूर्ण रचनाकार थे और तीनों मित्र भी थे। मुक्तिबोध में मुझे किसी न्यायाधीश की तरह का संतुन दिखता है। इसलिए मैंने कहानी में उन्हें न्यायाधीश बताया है, परसाई में साहस था इसलिए  उन्हें पुसि इंस्पेक्टर के रूप में लिया  है। शमशेर का व्यक्तित्व भी मुझे फिट गा .. और मेरी कहानी में भी ये मानवीय चरित्र के रुप में ही आये हैं।


'आपकी कई कहानियां किसी न किसी लोम हर्षक घटना का वृतांत होती है ! '

'हां इनमें ज्यादातर सच घटनाएं होती हैं। मोहनदास वाइसलिली कहानी की घटना तो हमारे गांव की ही है। जो एक पढ़ा खिला नौजवान था, जिसके नियुक्ति आदेश को गांव का कोई ऊंची जाति का डक़ा पा जाता है और उसके बदे में उसकी नौकरी को हथिया लेता है। इस तरह एक दूसरा आदमी दूसरे किसी की नौकरी को कर रहा होता है। यह एक बड़ी त्रासद कथा है।'

'मेंगासिल' के बाद आपने कोई कहानी खिली?

वे थोड़ा ठिठकते हैं 'नही.. मेंगासि के बाद मैंने कोई कहानी नहीं खिली है।'

'आपकी कहानियां म्बी होती हैं बहुत मानसिक तैयारी के बाद खिना होता होगा?

'एक ही राइटअप होती है मेरी कहानियां। उसी में ही काट सुधार कर दिया जाता है। बस खिता चा जाता हूं। कोई मानसिक तनाव नहीं होता है।'

'कम्प्यूटर से खिते हैं?'

'कम्प्यूटर से दूसरे काम करता हूं। अपनी फिल्में या डाक्यूमेंट्री बनाने सम्बंधी। पर कविता कहानी के साथ कम का आत्मीय रिश्ता है। इसलिए कम से ही खिता हूं। जिस तरह चित्रकारी के लिए तुलिका जरुरी है वैसे ही कहानी खिने के लिए मुझे कम जरुरी है।'

पाठक !

'पाठकों की कमी नहीं है मुझे।' वे अपना कमरा दिखाते हैं जिसमें उनके प्रशंसकों की डाक बिखरी हुई है। इनमें कितनी तो खुली ही नहीं हैं 'अक्सर हम बाहर रहते हैं। कई बार विदेश यात्राएं होती हंै। कहानियों के अनुवाद के लिए लोग आते हैं। अनुवादकों को तो मैं भगवान मानता हूं। अनुवादों के जरिए दूसरे देशों में भी पाठकों से जुड़ जाता हूं। अभी पीली छतरी वाली कहानी के फ्रेंच अनुवाद के कारण एक कार्यक्रम में फ्रांस जा रहा हूं। मेरा बेटा जो जर्मनी में नौकरी करता है, उसने भी एक फ्रंासीसी डक़ी से शादी की है। पिछे दिनों यहीं पार्टी हुई तो सारे फ्रांसीसी रिश्तेदारों से यह घर भरा पड़ा था। दूसरा बेटा दिल्ली में ही नौकरी पर है।

वे अचानक उठते हैं 'आइए विनोदजी मैं आपको अपनी मेहनत से खरीदा हुआ सत्ताइस लाख का यह मकान दिखाऊंलं।Ó उन्होंने सबसे पहा कमरा खोला 'इस कमरे को आप अच्छे से देख लीजिए क्योंकि अब जब भी आप दिल्ली आएं तो यहां रुकें।' उस कमरे को व्यवस्थित करने में भाभी जुटी हुई थीं। सभी कमरे व प्रसाधन कक्ष को दिखाते हुए वे टैरेस पर ले आते हैं जिसमें बागवानी भी हुई है 'यहां कभी किसी लेखक मित्र के साथ बैठकर बीयर पी लेते हैं।' हिन्दी का एक लेखक किसी कस्बे से निककर दिल्ली में घर बसा ले और वह भी केव अपने लेखन के दम पर यह एक अचम्भा है। यह हिन्दी के याचक और दयनीय संसार के लिए  तो सचमुच विकट अचम्भा है।

मैं भिलाई में अपने साथ ली हुई उनकी तस्वीर दिखाता हूं। वे बो पड़ते हैं 'अरे आपका चित्र तो बड़ा खूबसूरत आया है और मैं किसी विदेशी की तरह दिख रहा हूं।' वे अपने डिजीट कैमरे से मेरी भी कुछ तस्वीरें लेते हैं किसी पेशेवर फोटोग्राफर की तरह लाइट एंड शेड का ध्यान रखते हुए। मुझे कैमरे में ही दिखाते हैं। मैं उनके भिलाई प्रवास पर हुए कार्यक्र म की सीडी देता हूं। वे भारतेन्दु हश्चिंद्र पर बनाए गए वृत्तचित्र की सीडी मुझे देते है 'यह दूरदर्शन से एप्रूव्ड है। आगे प्रसारण होगा।'

मैं नीचे उतरता हूं। मुझे छोडऩे के लिए  वे और भाभी एक साथ उतरते हैं। वे आनंद विहार तक मुझे कार में छोडऩा चाहते हैं। अपनी वैगन आर को ड्राइव करते हुए वे गेब मार्केट बातें करते हुए ठीक उस विदेशी चेहरे की तरह दिख रहे हैं जो मेरे साथ चित्र में हैं। वे मुझसे हाथ मिलाते हुए आत्मीय मुस्कान के साथ कहते हैं 'हम बहुत जल्दी मिलेंगे।' मैं धीरे से उन्हें कहता हूं 'आजादी के पहे प्रेमचंद और आजादी के बाद उदय प्रकाश।' वे हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर आल्हादित स्वरों में कहते हैं 'आप महान हैं।' हम दोनों अपनी-अपनी महानता के दर्प से बिदा होते हैं।

मैं फिर से हिन्दी के जादुई यथार्थवाद से आरोपित इस कथाकार की अल्प समय में दीर्घ साधना को याद करता हूं जिनका खिला, कहा हर समय चर्चा और विवाद के घेरे में होता है फिर भी अपनी जगह अट और विश्वसनीय होता है। बहुत कम log ही बना सकते हैं ऐसा आशियाना विराट राजधानी दिल्ली में और ऐसा घरौंदा हिन्दी साहित्य के दुर्गम संसार में।

उदय प्रकाश जी से इस पते पर संपर्क किया जा सकता है-
9/2 जज कॉलोनी, न्याय मार्ग, वैशाली सेक्टर-9, गाजियाबाद- 201010
मो. नं. 09810716409
पता: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
मो. 9907196626

आतंकवाद! चोला बदल रहा है

मुद्दा
आतंकवाद! चोला बदल रहा है
-डॉ. महेश परिमल

...आतंकवादियों के बुलंद हौसलों ने एक बार फिर देश की कानून व्यवस्था पर एक सवालिया निशान लगा दिया है। इस बार आतंकवादियों ने समुद्री मार्ग से आकर देश की आर्थिक राजधानी पर हमला बोला है। इस बार हमारे सामने आतंक का जो चेहरा हम सबके सामने आया है, उससे यही कहा जा सकता है कि आतंकवाद ने अब अपनी दिशा बदली है। अब उसके पास न केवल अत्याधुनिक शस्त्र हैं, बल्कि उसके पीछे एक गहरी सोच भी है। अब वे अपनी मौत से खौफ नहीं खाते, बल्कि अपने सर पर कफन बांधकर निकलते हैं और देश की सुरक्षा एजेंसियों को धता बताते हैं। आतंकवादी बार-बार हमला करके हमेशा हमारे देश की सुरक्षा एजेंसियों की तमाम सुरक्षा पर सेंध लगा रहे हैं। हम केवल आतंकवादियों की आलोचना कर, उनकी भत्र्सना करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। हमें आतंकवाद के बदलते चेहरे को पढऩा होगा, तभी समझ पाएंगे कि वास्तव में आतंकवाद का चेहरा इतना कू्रर कैसे हो गया? इस क्रूर चेहरे के पीछे छिपी साजिश को नाकाम करने का अब समय आ गया है, अन्यथा बहुत देर हो जाएगी।

पूरे विश्व में आतंकवाद की परिभाषा बदल रही है। अब तक हमारा देश दाऊद इब्राहीम और अबू सलेम को ही सबसे बड़ा आतंकवादी मानता था। अब हमें दुनिया भर के उन शिक्षित युवा आतंकवादियों से जूझना होगा, जो संगठित होकर पूरी दुनिया में अराजकता फैला रहे हैं। इन युवाओं की यही प्रवृत्ति है कि देश में अधिक से अधिक बम विस्फोट कर जान-माल का नुकसान पहुंचाया जाए। अब तक के आंकड़ों के अनुसार विश्व के सभी आतंकवादी संगठनों में एक बात की समानता रही है कि उनका निशाना आम आदमी और सरकारी सम्पत्ति हुआ करता था। इन युवाओं को उनके आका यही कहते हैं कि हमेशा आम आदमी को ही निशाना बनाओ, किसी बड़े आदमी को निशाना बनाओगे, तो पुलिस हाथ-धोकर पीछे पड़ जाएगी। आम आदमी के मरने पर केवल जांच आयोग ही बैठाए जाएंगे और उन आयोग की रिपोर्ट कब आती है और उस पर कितना अमल होता है, यह सभी जानते हैं। लेकिन अब मुंबई में ताज होटल के ताजा हमले ने तो इस धारणा को भी धाराशाई कर दिया है। जाहिर है कि इस तरह के सुनियोजित हमले करने वाला कोई साधारण बुद्धि का इंसान नहीं है। उसकी बुद्धि कब कौन सा खेल खेलेगी यह कोई नहीं जानता। ताज होटल में हमला करने के पीछे उसकी मंशा हिन्दुस्तान के सो रहे आकाओं के गाल पर तमाचा मारना तो है ही साथ ही वे पूरे विश्व का ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित करना चाहते थे और ऐसा उन्होंने कर भी दिखाया।
क्या आप जानते हैं कि अल कायदा का नेता ओसामा बिन लादेन सिविल इंजीनियर है, अल जवाहीरी इजिप्त का कुशल सर्जन है। ट्वीन टॉवर की जमींदोज करने की योजना बनाने वाला मोहम्मद अट्टा आर्किटेक्चर इंजीनियर में स्नातक था। इन तमाम आतंकवादियों ने पूरे होश-हवास में अपने काम को अंजाम दिया था। ये सभी टीम वर्क में काम करते हैं और सदैव अपने साथियों से घिरे हुए होते हैं। वैसे ये आतंकवादी जब अकेले होते हैं, तब वे बिलकुल घातक नहीं होते, पर जब वे संगठित हो जाते हैं, तब उनका मुकाबला करना मुश्किल हो जाता है।
आज राजनीतिक हालात बदलते जा रहे हैं, ऐसे में ये युवा पीढ़ी अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रही है। आज के युवाओं की मानसिक स्थिति का वर्णन करते हुए जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवेर्सिटी के वाइस चांसलर मुशीरुल हसन कहते हैं कि - आज की परिस्थिति में मुस्लिम युवा खुद को लाचार और असहाय समझ रहे हैं। यह लाचारी उन्हें विद्रोह के लिए पे्ररित कर रही है। यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है, इसे हमें हलके ढंग से नहीं लेना चाहिए।
पिछले एक- दो वर्षों में गुजरात, हैदराबाद, दिल्ली, मुंबई आदि कई बड़े शहरों में जिस तरह से दंगे हुए और हत्याएं हुईं, ऐसे ही दंगे यदि और होते रहे, तो युवाओं में विद्रोह की आग और भडक़ेगी। आज के युवाओं में घर कर रही इसी असुरक्षा की भावना का कुछ लोग गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। आतंकवादियों की इस नई खेप में उच्च शिक्षा प्राप्त युवा हैं। आतंकवादी बन जाने में मेडिकल और इंजीनियर युवा सबसे अधिक हैं।
पिछले दिनों देश भर में हुए बम विस्फोट में जिन आतंकवादियों के नाम सामने आए हैं, उनमें से प्रमुख हैं मुफ्ती अबू बशीर, अब्दुल सुभान कुरैशी, साहिल अहमद, मुबीन शेख, मोहम्मद असगर, आसिफ बशीर शेख ये सभी आतंकवादी अपने फन में माहिर हैं, इन्होंने ये सारा ज्ञान बरसों की ट्रेनिंग से प्राप्त किया है। खास बात यह है कि इनमें से अधिकांश ने तकनीकी शिक्षा प्राप्त की है। जिस तरह से शिक्षा हासिल करने में ये पारंगत रहे, उसी तरह अपनी जिम्मेदारी को निभाने में भी ये अव्वल रहे। इन्हें आतंकवाद की ओर धकेलने के लिए इनकी मानसिकता ही जवाबदार है। जाने-माने शिक्षाशास्त्री और समाजशास्त्री यह मानते हैं कि

आजकल समाज में जातिवाद का जहर फैलाया जा रहा है। इसका सीधा असर विद्यार्थियों और युवाओं पर पड़ रहा है। भुलावे में डालने वाली इस करतूत का असर युवाओं में कट्टरवाद के रूप में हो रहा है। कट्टरवाद के बीज रोपने में उन्हें दी जाने वाली जातिवाद की शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसीलिए ये युवा अपना विवेक खो रहे हैं। अपना नाम न बताने की शर्त पर इंटेलिजेंस ब्यूरो के भूतपूर्व अधिकारी अभी की स्थिति की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि आतंकवादियों की मनोदशा देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा और मानसिकता के बीच कोई संबंध नहीं है।
60 और 70 के दशक में प्रेसीडेंसी और सेंट स्टिफंस जैसी प्रतिष्ठित कॉलेज के विद्यार्थियों का रुझान नक्सलवाद की ओर बढऩे की खबर आई थी। उसी तरह आज के शिक्षित युवा सम्मानजनक वेतन की नौकरी छोडक़र आतंकवाद को अपनाने लगे हैं। आतंकवाद के प्रति इन युवाओं के आकर्षण के पीछे किसी वस्तु का अभाव नहीं है, किंतु एक निश्चित विचारधारा इसके लिए जवाबदार है। इस तरह की स्थिति केवल भारत में ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। आज विश्व स्तर पर जो आतंकवादी पकड़े जा रहे हैं, उसमें से अधिकांश युवा उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। पिछले वर्ष ब्रिटेन के ग्लास्को एयरपोर्ट में हुए बम विस्फोट का जो आरोपी पकड़ा गया था, वह साबिल था, जो ब्रिटेन के एक अस्पताल में डॉक्टर था। इस विस्फोट में साबिल के भाई काफिल की मौत हो गई थी, यह इंजीनियरिंग में पीएचडी था। साबिल ने बेंगलोर के बी.आर. अंबेडकर कॉलेज से मेडिकल की पढ़ाई की थी।

तभी तो आज के भटके हुए युवाओं पर गीतकार जावेद अख्तर कहते हैं कि आतंकवादी बनने का प्रचलन देश के लिए चिंता का विषय है। इनके पीछे कुछ राजनीतिक दलों का भी हाथ है, जो परदे के पीछे से अपना खेल खेल रहे हैं। सरकार को इस पर अंकुश लगाना चाहिए और उन युवाओं की तरफ ध्यान देना चाहिए, जिनके हालात बद से बदतर हो रहे हैं। सन् 2004 में एक भूतपूर्व सीआईए एजेंट ने अलकायदा के 172 आतंकवादियों की पृष्ठभूमि पर शोध किया, इसमें उन्होंने पाया कि इनमें से अधिकांश आतंकवादी मध्यमवर्गीय या उच्च मध्यमवर्गीय परिवार के उच्च शिक्षा प्राप्त युवा हैं।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि आतंकवाद को देखने का नजरिया बदलना आवश्यक हो गया है। इसे अब लाचार और बेबस लोग नहीं अपनाते। पहले इन लाचारों की विवशता का लाभ उठाकर कुछ लोग अपना उल्लू सीधा कर लेते थे, पर अब ऐसी बात नहीं है। अब तो उच्च शिक्षा प्राप्त युवा पूरे होश-हवास के साथ अपने काम को अंजाम देते हैं। ऐसे लोग टीम वर्क से अपना काम करते हैं, जिसका परिणाम हमेशा खतरनाक रहा है। हाल ही में भारत में हुए सबसे बड़े आतंकवादी हमले को इसी नजरिए से देखा जा सकता है। यदि अब भी सरकार ने अपना रवैया नहीं बदला, तो संभव है कोई सिरफिरा 'ए वेडनेस डे' जैसी हरकत फिर कर बैठे। सरकार को इसके लिए भी सचेत रहना होगा। ....और लीजिए यह हरकत तो हो ही गई।

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हमारे लोक देवता वृक्ष

हमारे लोक देवता वृक्ष
-डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताओं का आधार मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है। इसी में पेड़, पहाड़ और नदी का अवतार के रुप में मनुष्यों, प्राणियों की पूजा की परम्परा का प्रचलन हुआ। मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्ति पूजा के साथ ही पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं की पूजा की परम्परा भी विद्यमान थी।

वृक्षों का मनुष्य से अलग अपना कोई इतिहास नहीं है। वृक्षों की पूजा दरअसल एक मायने में अपने पूर्वजों को आदर प्रकट करने का माध्यम हैं, जिसकी वजह से आज तक प्रकृति का संतुलन बना रहा है। आज समाज सिर्फ भविष्य की ओर देख रहा है, परन्तु वह यह भूल रहा है कि अंतत: यह प्रकृति ही है जो उसे जिंदा रखेगी।

मानव जीवन के तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्टी मुख्य रुप से वनों पर ही आधारित है। इसके साथ ही वनों से कई अप्रत्यक्ष लाभ भी हैं जिनमें खाद्य पदार्थ, औषधियां, फल-फूल, ईधन, पशु आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा संतुलन, भूजल संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख है।

जिस पर्यावरण चेतना की बात विकसित देश अब कर रहे है, वह आदिकाल से भारतीय मनीषा का मूल आधार रही है। भारतीय संस्कृति वृक्ष पूजक संस्कृति है। हमारे देश में वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उसकी पूजा की परम्परा प्राचीनकाल से रही है। जहां तक वनस्पतियों के महत्व का प्रश्न है, भारतीय प्राचीन ग्रंथ इनकी महिमा से भरे पड़े है। वृक्षों के प्रति ऐसा प्रेम शायद ही किसी देश की संस्कृति में हो, जहां वृक्ष को मनुष्य से भी ऊंचा स्थान दिया जाता है एवं उनकी पूजा कर सुख और समृद्धि की कामना की जाती है। हमारी वैदिक संस्कृति में पौधारोपण व वृक्ष पूजन की सुदीर्घ परम्परा रही है। प्रयाग का अक्षयवट, अवंतिका का सिद्धवट, नासिक का पंचवट (पंचवटी) गया का बोधिवृक्ष, वृंदावन का वंशीवट जैसे वृक्ष केन्द्रित श्रद्धा के केन्द्रों की परम्परा अनेक शताब्दियों पुरानी है।
वैदिक काल में प्रकृति के आराधक भारतीय मनीषी अपने अनुष्ठानों में वनस्पतियों को विशेष महत्व देते थे। वेदों और आरण्यक ग्रंथों में प्रकृति की महिमा का सर्वाधिक गुणगान है, उस काल में वृक्षों को लोकदेवता की मान्यता दी गयी। वृक्षों में देवत्व की अवधारणा का उल्लेख वेदों के अतिरिक्त प्रमुख रुप से मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, भविष्यपुराण, पद्मपुराण, नारदपुराण,रामायण, भगवद्गीता

और शतपथब्राह्मण आदि ग्रंथों में मिलता है। मोटे रुप में देखे तो वेद, पुराण, संस्कृत और सूफी साहित्य, आगम, पंचतंत्र, जातक कथाएं, कुरान, बाईबिल, गुरुग्रंथ साहब हो या अन्य कोई ग्रंथ हों सभी में प्रकृति के लोकमंगलकारी स्वरुप का वर्णन है।
पर्यावरण के प्रति सामाजिक सजगता और पौधारोपण के प्रति सतर्कता हमारे ऋ षियों ने निर्मित की थी, पौधारोपण कब, कहां और कैसे किया जाये उसका लाभ और वृक्ष काटे जाने से होने वाली हानि का विस्तारपूर्वक वर्णन हमारे सभी धर्मो के ग्रंथों
में है।

दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताओं का आधार मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है। इसी में पेड़, पहाड़ और नदी का अवतार के रुप में मनुष्यों, प्राणियों की पूजा की परम्परा का प्रचलन हुआ। मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्ति पूजा के साथ ही पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं की पूजा की परम्परा भी विद्यमान थी। भारतीय साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला में वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है। अजंता के गुफाचित्रों और सांची के तोरण स्तंभों की आकृतियों में वृक्ष पूजा के दृश्य है। जैन और बौद्ध साहित्य में वृक्ष पूजा का विशेष स्थान रहा है। पालि साहित्य में विवरण है कि बोधिसत्व ने रुक्ख देवता बनकर जन्म लिया था।

हमारे सबसे प्राचीन ग्रंथ वेदों में प्रकृति की परमात्मा स्वरुप में स्तुति है। इसके साथ ही वाल्मिकी रामायण, महाभारत और मनुस्मृति में वृक्ष पूजा की विविध विधियों का विस्तार से वर्णन है। नारद संहिता में 27 नक्षत्रों की नक्षत्र वनस्पति की जानकारी दी गयी है। हर व्यक्ति के जन्म नक्षत्र का वृक्ष उसका कु ल वृक्ष है, यही उसके लिये कल्पवृक्ष है, जिसकी आराधना कर मनोवांछित फल प्राप्त किया जा सकता है। सभी धार्मिक आयोजनों एवं पूजापाठ में पीपल, गुलर, पलाश, आम और वट वृक्ष के पत्ते (पंच पल्लव) की उपस्थिति अनिवार्य होती है। नवग्रह पूजा अर्चना के लिये नवग्रह वनस्पतियों की सूची है जिसके अनुसार उन वृक्षों की पूजा-प्रार्थना से ग्रह शांति का लाभ मिल सकता है।
यह धीरे-धीरे बढ़ता है और सैकड़ों वर्षो तक जिंदा रहता है। भारत में समुद्रतटीय प्रदेशों गुजरात, महाराष्ट्र और केरल में कल्पवृक्ष बहुतायत से मिलते है। देश के कुछ चर्चित कल्पवृक्षों में हिमालय में जोशीमठ, राजस्थान में मांगलियावास, बालुन्दा और बांसवाड़ा के कल्पवृक्ष प्रमुख है।

पौराणिक ग्रंथ स्कंदपुराण के हेमाद्रि खंड के अनुसार पांच पवित्र छायादार वृक्षों के समूह को पंचवटी कहा गया है, जिसमें पीपल, बेल, बरगद, आवंला व अशोक शामिल है। पुराणों में दो प्रकार की पंचवटी का वर्णन किया गया हैं। प्रत्येक में इन पांच प्रजातियों की स्थापना विधि, एक नियत दिशा, क्रम व अंतर के स्पष्ट निर्देश है।
भगवान बुद्ध के जीवन की सभी घटनाएं वृक्षों की छाया में घटी। आपका जन्म सालवन में एक वृक्ष की छाया में हुआ। इसके बाद प्रथम समाधि जामुन वृक्ष की छाया में, बोधि प्राप्ति पीपल वृक्ष की छाया में और महानिर्वाण साल वृक्ष की छाया में हुआ। भगवान बुद्ध ने भ्रमणकाल में अनेकों वनों एवं बागों में प्रवास किया था। इनमें वैशाली की आम्रपाली का आम्रवन, पिपिला का सखादेव आम्रवन, नांलदा का पुरवारीक आम्रवन व अनुप्रिय का आम्रवन के नाम उल्लेखनीय है। उसके अतिरिक्त राजाग्रह निम्बिला और कंजगल के वेणु वनों का संबंध भी भगवान बुद्ध से आया है। जैन धर्म में जैन शब्द जिन से बना है, इसका अर्थ है समस्त मानवीय वासनाओं पर विजय करने वाला। तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है नदी पार कराने का स्थान अर्थात घाट। धर्मरुपी तीर्थ का जो प्रवर्तन करते है वे तीर्थंकर कहलाते हैं। तपस्या के रुप में सभी तीर्थकरों को विशुद्ध ज्ञान (कैवल्य ज्ञान) की प्राप्ति किसी न किसी वृक्ष की छाया में हुई थी, इन वृक्षों को कैवली वृक्ष कहा जाता है।

सिख धर्म में वृक्षों का अत्यधिक महत्व है। वृक्ष को देवता रुप में देखा गया हैं गुरुकार्य में उपयोग आने वाले धर्मस्थल के पास स्थित वृक्ष समूह को गुरु के बाग कहा जाता है। इनमें गुरु से जुड़े कुछ वृक्ष निम्न है - नानकमता का पीपल वृक्ष, रीठा साहब का रीठा वृक्ष, टाली साहब का शीशम, और बेर साहब प्रमुख है। इसके साथ ही कुछ बेर वृक्ष भी पूजनीय और प्रसिद्ध है। इनमें दुखभंजनी बेरी, बाबा की बेरी और मेहताबसिंह की बेरी के वृक्ष शामिल है।
पृथ्वी पर पाये जाने वाले जिन पेड़-पौधों का नाम कुरान-मस्जिद में आया है, उन पेड़ों को पूजनीय माना गया है। इन पवित्र पेड़ों में खजूर, बेरी, पीलू, मेहंदी, जैतून, अनार, अंजीर, बबूल, अंगुर और तुलसी मुख्य है। इनमें कुछ पेड़-पौधों का वर्णन मोहम्मद साहब (रहमतुल्लाह अलैहे) ने कुरान मस्जिद में किया हैं इस कारण इन पेड़ पौधों का महत्व और भी बढ़ जाता है। हम सभी धर्मग्रंथ पेड़-पौधों के प्रति प्रेम और आदर का पाठ पढ़ाते है। इसी प्रेम और आदरभाव से वृक्षों की सुरक्षा कर हम अपने जीवन में सुख, समृद्धि प्राप्त कर सकते है।

आज की सबसे बड़ी समस्या वनों के अस्तित्व की है। भोगवादी सभ्यता के पक्षधर सारी दुनिया में पेड़ को पैसे के पर्याय के रुप में देखते है, यही कारण है कि दुनिया का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा है जहां वृक्ष हत्या का दौर नहीं चल रहा हो। हमारे यहां सुखद बात यह है कि भारतीय संस्कृति की परंपरा वृक्षों के साथ सहजीवन की रही है। पेड़ संस्कृति के वाहक है।
यहां प्रकृति की सुरक्षा से ही संस्कृति की सुरक्षा हो सकती है। इस कारण यहां जंभोजी महाराज की सीख है जिसमें कहा गया है कि सिर साटे रुख रहे तो सस्तो जाण, इसी क्रम में धराड़ी और ओरण जैसी परम्पराओं ने जातीय चेतना को प्रकृति चेतना से आत्मसात कर वृक्ष पूजा और वृक्ष रक्षा से जीवन में सुख-समृद्धि की कामना की है। आज इसी भावना को विस्तारित कर हम अपने भविष्य को सुरक्षित रख सकते हैं।
हमारे प्राचीन साहित्य में जिन पवित्र और अलौकिक वृक्षों का उल्लेख है उनमें कल्पवृक्ष प्रमुख है। कल्पवृक्ष को देवताओं का वृक्ष कहा गया है, इसे मनोवांछित फल देने वाला नंदन वृक्ष भी माना जाता है। भारत में बंबोकेसी कल के अडऩसोनिया डिजिटेटा को कल्पवृक्ष कहा जाता है। इसको फ्रांसीसी वैज्ञानिक माइकल अडनसन ने 1754 में अफ्रीका में सेनेगल में सर्वप्रथम देखा था, इसी आधार पर इसका नाम अडऩसोनियाडिजिटेटा रखा गया। नश्वर जगत का कोई भी वृक्ष इसकी विशालता, दीर्घजीविता और आराध्यता में बराबरी नहीं कर सकता है।

सिलसिला, अफसाना

सिलसिला
राजेश उत्साही

हवाओं में जहर हर तरफ मिला  है

राह में जो बिछड़ा वो कब मिला  है।

फेफड़े हैं कुन्द और नब्ज मद्घम
दिमाग भी है बन्द, मुंह सिला है।


हर वक्त खुलकर सोचने वालों
आसपास ये कौन-सा किला है।


दूर से नजर आता है हरा-भरा
पास आकर देखिए निरा पीला है।


मत रहो घोड़ों की सू बांधकर पट्टी
राह में दाएं-बाएं भी उपवन खिला है।


रूठे-मनाएं, रूठ जाएं फिर से
जिन्दगी का तो यही सिलसिला है।


पर्वत जो सामने है कोई बात नहीं
हां, एक उत्साही से कब हिला है ।


अफसाना

मासूम सवालों का जमाना नहीं रहा
चालाक हैं सब, कोई सयाना नहीं रहा।


औरों की बुनियाद में हो गए पत्थर
खुद का चाहे कोई ठिकाना नहीं रहा।


फटी हुई गुदड़ी के लाल हैं हम भी
अग बात है, कोई घराना नहीं रहा।


सी लिए होंठ सबने मूंद ली आंखें
शायद कसने को अब ताना नहीं रहा।


बहारों के दरीचों पर है प्रवेश निषेध
जाएं कहां अब कोई वीराना नहीं रहा।


समझेगा नहीं कोई मोहब्बत का जुनून
हीर-सी दीवानी,फरहाद दीवाना नहीं रहा।


सिर-से पैर तक बद गई है दुनिया
फैशन में कोई चन पुराना नहीं रहा।


आओ उत्साही से भी मिल लें चलकर
चर्चा में उसका अफसाना नहीं रहा।

अंग्रेजी सरकार की आंखों में धूल झोंकने वाली दुर्गा भाभी

 जन्म शताब्दी वर्ष
अंग्रेजी सरकार की आँखों में 
धूल झोंकने वाली दुर्गा भाभी
-आकांक्षा यादव
यह राष्ट्र के लिये गौरव का विषय है कि वर्ष 2007-08 दुर्गा देवी के साथ-साथ भगत सिंह और सुखदेव का भी जन्म-शताब्दी वर्ष है। बहुत कम ही लोगों को पता होगा कि एक ही वर्ष की विभिन्न तिथियों में जन्मतिथि पडऩे के बावजूद भगतसिंह अपना जन्मदिन दुर्गा देवी के जन्मदिन पर उन्हीं के साथ मनाते थे।
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वर्ष 1927 का दौर। साइमन कमीशन का विरोध करने पर लाहौर में प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले शेरे-पंजाब लाला लाजपत राय पर पुलिस ने निर्ममतापूर्वक लाठी चार्ज किया, जिससे 17 नवम्बर 1928 को उनकी मौत हो गयी। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में यह एक गम्भीर क्षति थी। पूरे देश विशेषकर नौजवानों की पीढ़ी को इस घटना ने झकझोर कर रख दिया। लाला लाजपत राय की मौत को क्रान्तिकारियों ने राष्ट्रीय अपमान के रूप में लिया और उनके मासिक श्राद्ध पर लाठी चार्ज करने वाले लाहौर के सहायक पुलिस कप्तान साण्डर्स को 17 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह, चन्द्रशेखर व राजगुरु ने खत्म कर दिया। यह घटना अंग्रेजी सरकार को सीधी चुनौती थी, सो पुलिस ने क्रान्तिकारियों पर अपना घेरा कसना आरम्भ कर दिया। ऐसे में भगत सिंह व राजगुरु को लाहौर से सुरक्षित बाहर निकालना क्रान्तिकारियों के लिये टेढ़ी खीर थी। ऐसे समय में एक क्रान्तिकारी महिला ने सुखदेव की सलाह पर भगतसिंह और राजगुरु को लाहौर से कलकत्ता बाहर निकालने की योजना बनायी और फलस्वरूप एक सुनियोजित रणनीति के तहत यूरोपीय अधिकारी के वेश में भगत सिंह पति, वह क्रान्तिकारी महिला अपने बच्चे को लेकर उनकी पत्नी और राजगुरु नौकर बनकर अंग्रेजी सरकार की आंखों में धूल झोंकते वहां से निकल लिये। यह क्रान्तिकारी महिला कोई और नहीं बल्कि चन्द्रशेखर आजाद के अनुरोध पर 'दि फिलासाफी आफ बम' दस्तावेज तैयार करने वाले क्रान्तिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी दुर्गा देवी वोहरा थीं, जो क्रान्तिकारियों में 'दुर्गा भाभीÓ के नाम से प्रसिद्ध थीं।

7 अक्टूबर 1907 को रिटायर्ड जज पं. बांके बिहारी लाल नागर की सुपुत्री रूप में इलाहाबाद में दुर्गा देवी का जन्म हुआ। कुछ समय पश्चात ही पिताजी सन्यासी हो गये और बचपन में ही मां भी गुजर गयीं। दुर्गा देवी का लालन-पालन उनकी चाची ने किया। जब दुर्गा देवी कक्षा 5वीं की छात्रा थीं तो मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह भगवतीचरण वोहरा से हो गया, जो कि लाहौर के पंडित शिवचरण लाल वोहरा के पुत्र थे। दुर्गा देवी के पति भगवतीचरण वोहरा 1921 के असहयोग आन्दोलन में काफी सक्रिय रहे और लगभग एक ही साथ भगतसिंह, धनवन्तरी और भगवतीचरण ने पढ़ाई बीच में ही छोडक़र देश सेवा में जुट जाने का संकल्प लिया। असहयोग आन्दोलन के दिनों में गांधी जी से प्रभावित होकर दुर्गा देवी और उनके पति स्वयं खादी के कपड़े पहनते और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करते। असहयोग आन्दोलन जब अपने चरम पर था, ऐसे में चौरी-चौरा काण्ड के बाद अकस्मात इसको वापस ले लिया जाना नौजवान क्रान्तिकारियों को उचित न लगा और वे स्वयं अपना संगठन बनाने की ओर प्रेरित हुये।

असहयोग आन्दोलन के बाद भगवतीचरण वोहरा ने लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित नेशनल कालेज से 1923 में बी.ए. की परीक्षा उतीर्ण की। दुर्गा देवी ने इसी दौरान प्रभाकर की परीक्षा उतीर्ण की।

1924 में तमाम क्रान्तिकारी 'कानपुर सम्मेलनÓ के बहाने इक_ा हुये और भावी क्रान्तिकारी गतिविधियों की योजना बनायी। इसी के फलस्वरूप 1928 में 'हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन' का गठन किया गया, जो कि बाद में 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन' में परिवर्तित हो गया। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, भगवतीचरण वोहरा, बटुकेश्वर दत्त, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खान, शचीन्द्र नाथ सान्याल जैसे तमाम क्रान्तिकारियों ने इस दौरान अपनी जान हथेली पर रखकर अंग्रेजी सरकार को कड़ी चुनौती दी। भगवतीचरण वोहरा के लगातार क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय होने के साथ-साथ दुर्गा देवी भी पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रहीं। 3 दिसम्बर 1925 को अपने प्रथम व एकमात्र पुत्र के जन्म पर दुर्गा देवी ने उसका नाम प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के नाम पर शचीन्द्रनाथ वोहरा रखा।

वक्त के साथ दुर्गा देवी क्रान्तिकारियों की लगभग हर गुप्त बैठक का हिस्सा बनती गयीं। इसी दौरान वे तमाम क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आईं। कभी-कभी जब नौजवान क्रान्तिकारी किसी समस्या का हल नहीं ढूंढ़ पाते थे तो शान्तचित्त होकर उन्हें सुनने वाली दुर्गा देवी कोई नया आइडिया बताती थीं। यही कारण था कि वे क्रान्तिकारियों में बहुत लोकप्रिय और 'दुर्गा भाभी' के नाम से प्रसिद्ध थीं। महिला होने के चलते पुलिस उन पर जल्दी शक नहीं करती थी, सो वे गुप्त सूचनायें एकत्र करने से लेकर गोला-बारूद तथा क्रान्तिकारी साहित्य व पर्चे एक जगह से दूसरी जगह ले जाने हेतु क्रान्तिकारियों की काफी सहायता करती थीं। 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा देवी ने ही की। बैठक में अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जे.ए.स्काट को मारने का जिम्मा वे खुद लेना चाहती थीं, पर संगठन ने उन्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी।

8 अप्रैल 1929 को सरदार भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ आजादी की गूंज सुनाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय विधान सभा भवन में खाली बेंचों पर बम फेंका और कहा कि -'बधिरों को सुनाने के लिए अत्यधिक कोलाहल करना पड़ता है।' इस घटना से अंग्रेजी सरकार अन्दर तक हिल गयी और आनन-फानन में 'साण्डर्स हत्याकाण्ड' से भगत सिंह इत्यादि का नाम जोडक़र फांसी की सजा सुना दी। भगत सिंह को फांसी की सजा क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिये बड़ा सदमा थी। अत: क्रान्तिकारियों ने भगत सिंह को छुड़ाने के लिये तमाम प्रयास किये। मई 1930 में इस हेतु सेन्ट्रल जेल लाहौर के पास बहावलपुर मार्ग पर एक घर किराये पर लिया गया, पर इन्हीं प्रयासों के दौरान लाहौर में रावी तट पर 28 मई 1930 को बम का परीक्षण करते समय दुर्गा देवी के पति भगवतीचरण वोहरा आकस्मिक विस्फोट से शहीद हो गये। इस घटना से दुर्गा देवी की जिन्दगी में अंधेरा सा छा गया, पर वे अपने पति और अन्य क्रान्तिकारियों की शहादत को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहती थीं। अत: इससे वे पुन: क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय हो गईं।

लाहौर व दिल्ली षडयंत्र मामलों में पुलिस ने पहले से ही दुर्गा देवी के विरुद्ध वारण्ट जारी कर रखा था। ऐसे में जब क्रान्तिकारियों ने बम्बई के गवर्नर मेल्कम हेली को मारने की रणनीति बनायी, तो दुर्गा देवी अग्रिम पंक्ति में रहीं। 9 अक्टूबर 1930 को इस घटनाक्रम में हेली को मारने की रणनीति तो सफल नहीं हुयी पर लैमिग्टन रोड पर पुलिस स्टेशन के सामने अंग्रेज सार्जेन्ट टेलर को दुर्गा देवी ने अवश्य गोली चलाकर घायल कर दिया।

क्रान्तिकारी गतिविधियों से पहले से ही परेशान अंग्रेज सरकार ने इस केस में दुर्गा देवी सहित 15 लोगों के नाम वारण्ट जारी कर दिया, जिसमें 12 लोग गिरफ्तार हुये पर दुर्गा देवी, सुखदेव लाल व पृथ्वीसिंह फरार हो गये। अन्तत: अंग्रेजी सरकार ने मुख्य अभियुक्तों के पकड़ में न आने के कारण 4 मई 1931 को यह मुकदमा ही उठा लिया। मुकदमा उठते ही दुर्गा देवी पुन: सक्रिय हो गयीं और शायद अंग्रेजी सरकार को भी इसी का इन्तजार था।

अन्तत: 12 सितम्बर 1931 को लाहौर में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, पर उस समय तक लाहौर व दिल्ली षड्यंत्र मामले खत्म हो चुके थे और लैमिग्टन रोड केस भी उठाया जा चुका था, अत: कोई ठोस आधार न मिलने पर 15 दिन बाद मजिस्ट्रेट ने उन्हें रिहा करने के आदेश दे दिये। अंग्रेजी सरकार चूंकि दुर्गा देवी की क्रान्तिकारी गतिविधियों से वाकिफ थी, अत: उनकी गतिविधियों को निष्क्रिय करने के लिये रिहाई के तत्काल बाद उन्हें 6 माह और पुन: 6 माह हेतु नजरबंद कर दिया। दिसम्बर 1932 में अंग्रेजी सरकार ने पुन: उन्हें 3 साल तक लाहौर नगर की सीमा में नजरबंद रखा।

तीन साल की लम्बी नजर बन्दी के बाद जब दुर्गा देवी रिहा हुयीं तो 1936 में दिल्ली से सटे गाजियाबाद के प्यारेलाल गल्र्स स्कूल में लगभग एक वर्ष तक अध्यापिका की नौकरी की। 1937 में वे जबरदस्त रूप से बीमार पड़ी और दिल्ली की हरिजन बस्ती में स्थित सैनीटोरियम में उन्होंने अपनी बीमारी का इलाज कराया। उस समय तक विभिन्न प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी और इसी दौरान 1937 में ही दुर्गा देवी ने भी कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर राजनीति में अपनी सक्रियता पुन: आरम्भ की। अंग्रेज अफसर टेलर को मारने के बाद फरार रहने के दौरान ही उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हो चुकी थी। 1937 में वे प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी दिल्ली की अध्यक्षा चुनी गयीं एवं 1938 में कांग्रेस द्वारा आयोजित हड़ताल में भाग लेने के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। 1938 के अन्त में उन्होंने अपना ठिकाना लखनऊ में बनाया और अपनी कांग्रेस सदस्यता उत्तर प्रदेश स्थानान्तरित कराकर यहां सक्रिय हुईं। सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में आयोजित जनवरी 1939 के त्रिपुरी (मध्यप्रदेश) के कांग्रेस अधिवेशन में दुर्गा देवी ने पूर्वांचल स्थित आजमगढ़ जनपद की प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।
दुर्गा देवी का झुकाव राजनीति के साथ-साथ समाज सेवा और अध्यापन की ओर भी था। 1939 में उन्होंने अड्यार, मद्रास में मांटेसरी शिक्षा पद्धति का प्रशिक्षण ग्रहण किया और लखनऊ आकर जुलाई 1940 में शहर के प्रथम मांटेसरी स्कूल की स्थापना की, जो वर्तमान में इण्टर कालेज के रूप में तब्दील हो चुका है। मांटेसरी स्कूल, लखनऊ की प्रबन्ध समिति में तो आचार्य नरेन्द्र देव, रफी अहमद किदवई व चन्द्रभानु गुप्ता जैसे दिग्गज शामिल रहे। 1940 के बाद दुर्गा देवी ने राजनीति से किनारा कर लिया पर समाज सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को काफी सराहा गया।
दुर्गा देवी ने सदैव से क्रान्तिकारियों के साथ कार्य किया था और उनके पति की दर्दनाक मौत भी एक क्रान्तिकारी गतिविधि का ही परिणाम थी। क्रान्तिकारियों के तेवरों से परे उनके दुख-दर्द और कठिनाइयों को नजदीक से देखने व महसूस करने वाली दुर्गा देवी ने जीवन के अन्तिम वर्षों में अपने निवास को 'शहीद स्मारक शोध केन्द्रÓ में तब्दील कर दिया। इस केन्द्र में उन शहीदों के चित्र, विवरण व साहित्य मौजूद हैं, जिन्होंने राष्ट्रभक्ति का परिचय देते हुये या तो अपने को कुर्बान कर दिया अथवा राष्ट्रभक्ति के समक्ष अपने हितों को तिलांजलि दे दी। एक तरह से दुर्गा देवी की यह शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि थी तो आगामी पीढिय़ों को आजादी की यादों से जोडऩे का सत्साहस भरा जुनून भी। पारिवारिक गतिविधियों से लेकर क्रान्तिकारी, कांग्रेसी, शिक्षाविद् और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में आजीवन सक्रिय दुर्गा देवी 92 साल की आयु में 14 अक्टूबर 1999 को इस संसार को अलविदा कह गयीं।
दुर्गा देवी उन विरले लोगों में से थीं जिन्होंने गांधीजी के दौर से लेकर क्रान्तिकारी गतिविधियों तक को नजदीक से देखा, पराधीन भारत को स्वाधीन होते देखा, राष्ट्र की प्रगति व विकास को स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के दौर के साथ देखा...। आज दुर्गा देवी हमारे बीच नहीं हैं, पर वर्ष 2007-08 उनकी जन्म-शताब्दी का वर्ष है और हमें उनके सपनों, मूल्यों और जज्बातों का अहसास करा रहा है। आज देश के विभिन्न क्षेत्रों में तमाम महिलायें अपनी गतिविधियों से नाम कमा रही हैं, पर दुर्गा देवी ने तो उस दौर में अलख जगाई जब महिलाओं की भूमिका प्राय: घर की चारदीवारियों तक ही सीमित थी। यह राष्ट्र के लिये गौरव का विषय है कि वर्ष 2007-08 दुर्गा देवी के साथ-साथ भगत सिंह और सुखदेव का भी जन्म-शताब्दी वर्ष है।
बहुत कम ही लोगों को पता होगा कि एक ही वर्ष की विभिन्न तिथियों में जन्मतिथि पडऩे के बावजूद भगतसिंह अपना जन्मदिन दुर्गा देवी के जन्मदिन पर उन्हीं के साथ मनाते थे और उनके पति भगवतीचरण वोहरा सहित तमाम क्रान्तिकारी इस अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे। ऐसे वीरों की शहादत को शत्-शत् नमन.....